जिद नाम है उस हौसले का जिसमें नामुमकिन को मुमकिन बनाने का जुनून हो।
बिरले ही होते हैं ऐसे जिद्दी लोग और उनके मजबूत इरादों के सामने दुनिया
घुटने टेकने को मजबूर होती है। लगभग 1200 आविष्कार करने वाले अमेरिकी
वैज्ञानिक थॉमस अल्वा एडिसन की प्रतिभा को उनके शिक्षक भी पहचान न सके।
दिन-रात कल्पना की दुनिया में खोए रहने वाले एडिसन को वे मंदबुद्धि मानते
थे। इसी आधार पर उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया था। निर्धन परिवार में
जन्मे एडिसन ट्रेन में अखबार बेच कर गुजारा करते थे। बिजली के बल्ब का
आविष्कार
करने के दौरान उनके सौ से भी ज्यादा
प्रयास विफल हुए। लोगों ने उनका बहुत
मजाक उडाया और उन्हें भविष्य में ऐसा न करने की सलाह दी। फिर भी उन्होंने
हार नहीं मानी। अंतत: जब बल्ब की रौशनी से दुनिया जगमगा उठी तो लोग हैरत
में पड गए। एडिसन को अपनी कोशिशों पर पक्का यकीन था। इसीलिए वह अडिग रहे।
आसान नहीं होता अपनी बात पर अडिग रहना, पर जिसके इरादों में सच्चाई हो, उसे
दुनिया की कोई भी ताकत झुका नहीं सकती।
हौसले की होती है हमेशा जीत
जब भी दृढ इच्छाशक्ति की बात निकलती है तो दुष्यंत कुमार का यह शेर हमें बरबस याद आ जाता है- कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों..। साधनों की कमी की शिकायत करते हुए खुद कोई प्रयास न करना तो बेहद आसान है। ज्यादातर लोग करते भी यही हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनकी इच्छाशक्ति ही उनकी सबसे बडी पूंजी होती है। बिहार के गया जिले के छोटे से गांव गहलौर के दलित मजदूर दशरथ मांझी की जिद के आगे पर्वत को भी झुकना पडा। उन्होंने राह रोकने वाले पहाड का सीना चीर कर 365 फीट लंबा और 30 फीट चौडा रास्ता बना दिया। दरअसल पहाडी का रास्ता बहुत संकरा और उबड-खाबड था। उनकी पत्नी उसी रास्ते से पानी भरने जाती थीं। एक रोज उन्हें ठोकर लग गई और वह गिर पडीं। पत्नी के शरीर पर चोट के निशान देख दशरथ को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने उसी दम ठान लिया कि अब वह पहाडी को काटकर ऐसा रास्ता बनाएंगे, जिससे किसी को भी ठोकर न लगे। वह हाथों में छेनी-हथौडा लेकर पहाड काटने में जुट गए। तब लोग उन्हें पागल और सनकी समझते थे कि कोई अकेला आदमी पहाड काट सकता है भला! .पर उन्होंने अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनी। वह रोजाना सुबह से शाम तक अपने काम में जुटे रहते। उन्होंने 1960 में यह काम शुरू किया था और इसे पूरा करने में उन्हें 22 वर्ष लग गए। ..लेकिन अफसोस कि उनका यह काम पूरा होने से कुछ दिनों पहले ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। वह अपनी सफलता की यह खुशी उनके साथ बांट न सके। उनकी इस कोशिश से ही बेहद लंबा घुमावदार पहाडी रास्ता छोटा और सुगम हो गया। अब दशरथ इस दुनिया में नहीं हैं पर वह रास्ता आज भी हमें उनके जिद्दी और जुझारू व्यक्तित्व की याद दिलाता है। उनकी दृढ इच्छाशक्ति को सम्मान देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने कर्मचारियों के लिए दशरथ मांझी पुरस्कार की शुरुआत की है।
गुस्सा भी होता है अच्छा
जिद की तरह गुस्सा भी हमारी नकारात्मक भावनाओं में शुमार होता है और इन दोनों का बडा ही करीबी रिश्ता है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, अगर किसी दुर्भावना की वजह से गुस्सा आए और कोई किसी को नुकसान पहुंचाने की जिद करे तो निश्चित रूप से यह खतरनाक प्रवृत्ति है। इससे इंसान केवल दूसरों का ही नहीं, बल्कि अपना भी अहित कर रहा होता है। हमारी मानसिक संरचना में ये दोनों भावनाएं बिजली की तरह काम करती हैं। अगर सही जगह पर इनका इस्तेमाल किया जाए तो चारों ओर रौशनी फैल सकती है। अगर इनका गलत इस्तेमाल हो तो पल भर में जल कर सब कुछ खाक हो सकता है। यहां असली मुद्दा नकारात्मक भावनाओं को सकारात्मक ढंग से चैनलाइज करने का है। अगर बच्चा अपनी मनपसंद चीज लेने की जिद करता है तो बडों को हमेशा उसकी जिद पूरी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उससे यह वादा लेना चाहिए कि तुम परीक्षा में अच्छे मार्क्स लाओ तो तुम्हारी मांग जरूर पूरी की जाएगी। इससे उसे यह एहसास होगा कि बिना मेहनत के कुछ भी हासिल नहीं होता और उसकी जिद पढाई की ओर रुख कर लेगी।
गुस्से के सकारात्मक इस्तेमाल के संदर्भ में चिपको आंदोलन के अग्रणी नेता सुंदर लाल बहुगुणा द्वारा कही गई एक बात बरबस याद आ जाती है, पेड काटने वाले लोगों को देखकर मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आता है। इसलिए मैंने यह संकल्प लिया है कि इतने पेड लाऊंगा कि काटने वाले भले ही थक जाएं, फिर भी हमारी धरती हमेशा हरी-भरी बनी रहे। सच, लाचारी भरी शांति से तो ऐसा गुस्सा हजार गुना बेहतर है, जिससे देश और समाज का भला हो।
दिल पर लगी तो बात बनी
कई बार हमें दुख पहुंचाने वाले या हमारे साथ बुरा बर्ताव करने वाले लोग अनजाने में ही सही, लेकिन हमारी भलाई कर जाते हैं। इस संबंध में डॉ. अशुम गुप्ता आगे कहती हैं, कई बार दूसरों द्वारा कही गई कडवी बात हमारे लिए शॉक ट्रीटमेंट का काम करती है। ऐसी बातें सुनकर हमारा सोया हुआ जमीर जाग उठता है। फिर हम कई ऐसे मुश्किल काम भी कर गुजरते हैं, जिनके बारे में आमतौर पर सोचना भी असंभव लगता है। जरा सोचिए कि अगर तुलसीदास को अपनी पत्नी रत्नावली की बात दिल पर न लगी होती तो आज हिंदी साहित्य श्रीरामचरितमानस जैसे महाकाव्य से वंचित रह जाता। अगर दक्षिण अफ्रीका के पीट्मेरीज्बर्ग स्टेशन पर उस टीटी ने बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी का सामान ट्रेन की फर्स्ट क्लास की बोगी से बाहर न फेंका होता तो शायद आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता।
जब बात हो अपनों की
जिद के साथ कहीं न कहीं अपनों का प्यार और उनकी भावनाएं भी जुडी होती हैं। दिल्ली की मैरी बरुआ का इकलौता बेटा ऑटिज्म से पीडित था। वह दिन-रात उसकी देखभाल में जुटी रहतीं। वह कहती हैं, मेरे लिए मेरा बेटा ही सब कुछ है। मैंने उसकी खातिर ऐसे बच्चों को ट्रेनिंग देने का स्पेशल कोर्स किया। उसी दौरान मुझे यह खयाल आया कि सिर्फ मेरा ही बेटा क्यों.? ऐसे दूसरे बच्चों को भी ट्रेनिंग देकर मैं उन्हें कम से कम इस लायक तो बना दूं कि ये अपने रोजमर्रा के काम खुद करने में सक्षम हों और बडे होने के बाद सामान्य जिंदगी जी सकें। तभी से मैंने ऑटिज्म से पीडित दूसरे बच्चों की देखभाल शुरू कर दी। इससे मेरे मन को बहुत सुकून मिलता है। अब जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है, बल्कि ऐसा महसूस होता है कि ईश्वर ने मुझे इस काबिल समझा, तभी तो ऐसे बच्चों की जिम्मेदारी मुझे सौंपी है।
फर्क चश्मे का
अकसर हम लोगों के अडियल व्यवहार को नापसंद करते हैं। आकांक्षा जैन एक निजी कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर हैं। इस संबंध में उनका कहना हैं, शुरू से मेरी आदत रही है कि अगर मैंने एक बार कोई काम ठान लिया तो चाहे बीच कितनी ही बाधाएं क्यों न आएं मैं उसे पूरा करके ही दम लेती हूं। मेरी इस आदत की वजह से लोग मुझसे नाराज भी होते हैं, पर बाद में जब वह काम अच्छी तरह पूरा हो जाता है तो उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है। अडियल या परफेक्शनिस्ट होने में कोई बुराई नहीं है। अगर हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक हो तो हमें लोगों के जिद्दी व्यवहार का अच्छा पहलू भी नजर आएगा। अगर ऐसा न हो तो दूसरों के हर अच्छे व्यवहार में भी बुराई नजर आएगी।
सामाजिक स्वीकृति में दिक्कत
इस संबंध में समाजशास्त्री डॉ. शैलजा मेनन कहती हैं, किसी भी समाज में हमेशा वही व्यवहार स्वीकार्य होता है, जिससे सामने वाले व्यक्ति को कोई असहमति न हो। अगर कोई व्यक्ति लीक से हट कर कुछ भी करना चाहता है तो उसके आसपास के लोग उसे सहजता से स्वीकार नहीं पाते और वे ऐसे व्यक्ति को शक की निगाहों से देखते हैं।
अपनी ही धुन में लगे रहने वाले ऐसे क्रिएटिव लोगों को शुरुआती दौर में अकसर आलोचना का सामना करना पडता है, लेकिन उन पर नकारात्मकबातों का कोई असर नहीं होता। बाद में दुनिया को उनकी काबिलीयत की पहचान होती है और लोग उन्हें सुपर हीरो बना देते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
महान इटैलियन वैज्ञानिक गैलीलियो की जिंदगी इसकी सबसे बडी मिसाल है। उन्होंने उस पारंपरिक धारणा का खंडन किया था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है। उन्होंने ही सबसे पहले इस बात की खोज की थी कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। आज उसी वेटिकन सिटी के चर्च में उनकी मूर्ति लगाई जा रही है, जहां 400 साल पहले उनकी इस खोज को धार्मिक ग्रंथों के खिलाफ बताते हुए उन्हें यातना शिविर में बंद किया गया था और घोर शारीरिक-मानसिक यातनाएं दी गई थीं। अब सदियों बाद अपने इस प्रयास से चर्च अपनी उस पुरानी गलती का पश्चात्ताप करना चाहता है।
सामाजिक स्वीकृति में दिक्कत
जिद्दी और जोशीले लोगों को चुनौतियां स्वीकारना बहुत अच्छा लगता है। इस संबंध में सॉफ्टवेयर इंजीनियर सिद्धार्थ शर्मा का कहना है, हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। हमारे पिता बेहद मामूली सी नौकरी करते थे। हम छह भाई-बहनों की परवरिश बहुत मुश्किल थी। मैं इंजीनियर बनना चाहता था, पर मुझे मालूम था कि इसके लिए पिताजी पैसे नहीं जुटा पाएंगे। इसलिए जी जान से पढाई में जुटा रहता। मैंने ठान लिया था कि मैं केवल मेहनत के बल पर अपना सपना साकार करूंगा। बिना किसी कोचिंग के आईआईटी के लिए मेरा चयन हो गया। आगे की पढाई का खर्च मैंने खुद ट्यूशन करके उठाया। आज इंजीनियर बनने से कहीं ज्यादा, मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने संसाधनों की कमी के बावजूद विपरीत परिस्थितियों में भी कामयाबी हासिल की है। अगर कामयाबी ज्यादा मुश्किलें उठाने के बाद मिले तो उसका मजा दोगुना हो जाता है।
विकी रॉय फोटोग्राफर जिद से मिली जीत मैं पश्चिम बंगाल के पुरूलिया जिले का रहने वाला हूं। वहां गरीबी और मामा-मामी की मारपीट से तंग आकर नौ साल की उम्र में घर से भागकर दिल्ली चला आया। फिर यहां कबाड बीनने से लेकर ढाबे में प्लेटें धोने जैसे कई काम किए। एक रोज ढाबे में मुझे स्वयंसेवी संस्था सलाम बालक ट्रस्ट के कार्यकर्ता संजय श्रीवास्तव मिल गए। वह मुझे अपने साथ संस्था में ले गए। वहां रहकर मैंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। मुझे नई-नई जगहें देखने का बहुत शौक है। देश-विदेश घूमने के लालच में ही मैंने फोटोग्राफर बनने का निश्चय किया। सबसे पहले मैं फोटोग्राफी के एक वर्कशॉप में शामिल हुआ। वहां इससे जुडी बेसिक बातें सीखने के बाद मैंने अपनी संस्था से इंट्रेस्ट फ्री लोन लेकर एक कैमरा खरीदा। इसी दौरान मेरी मुलाकात ब्रिटिश फोटोग्राफर बिक्सी बेंजामिन से हुई। मुझे उनके साथ रह कर बहुत कुछ सीखने को मिला। पहले अंग्रेजी समझने में मुझे थोडी दिक्कत जरूर होती थी, फिर भी उनकी एक्टिविटीज देखकर मैं काम का सही तरीका समझ जाता था। इस दौरान द.अफ्रीका, वियतनाम, ब्रिटेन और स्विट्जरलैंड में मुझे अपनी तसवीरों की प्रदर्शनी लगाने का मौका मिला। 2009 में मुझे छह महीने के लिए अमेरिका के इंटरनेशनल सेंटर ऑफ फोटोग्राफी में प्रशिक्षण लेने का अवसर मिला। इतना ही नहीं, उन दिनों वहां वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के रीकंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था। मैंने उसकी कुछ ऐसी तसवीरें उतारीं, जिसे कई अंतरराष्ट्रीय फोटो प्रदर्शनियों में शामिल किया गया और लोगों ने उन्हें बहुत पसंद किया। बचपन से ही मैं जिल्लत और जलालत भरी जिंदगी से बाहर निकलने की कोशिश में जुटा था। मुझे ऐसा लगता है कि बिना जिद के कोई भी लडाई जीतना असंभव है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के बाद अब मैं मां और छोटे भाई-बहनों की सारी जिम्मेदारियां निभा रहा हूं।
अब भी नहीं सुधरी मैं
प्राची देसाई, अभिनेत्री
बचपन से मेरी एक ही जिद थी कि मुझे ऐक्ट्रेस बनना है। इसी जिद ने मेरी जिंदगी की दिशा बदल दी। हमारे परिवार का फिल्मों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। इसलिए मुझे तो यह भी पता नहीं था कि मेरा यह सपना कैसे पूरा होगा। मैं पंचगनी के एक बोर्डिग स्कूल में पढाई कर रही थी। इसलिए बाहर की दुनिया के बारे में मुझे कोई खास जानकारी नहीं थी। मुझे तो यह भी नहीं मालूा था कि ऑडिशन कहां और कैसे होते हैं ? अभिनय के सिवा मेरा और कोई फोकस नहीं था। बारहवीं पास करते ही मैंने मॉडलिंग के फील्ड से अपने करियर की शुरुआत की जो छोटे परदे के रास्ते से होते हुए बडे परदे तक पहुंची। बचपन में बहुत जिद्दी और शरारती थी। काफी मार खाई है मैंने, पर अब तक नहीं सुधरी। जब 12 साल की हो गई, तब पेरेंट्स ने मजबूरन मुझ पर हाथ उठाना बंद कर दिया।
जब आप लीक से हटकर कुछ अलग करना चाहते हैं तो आपको उसकी कीमत चुकानी पडती है। इसमें काफी तनाव भी होता है और उससे निकलने का एक ही तरीका है- डिटर्मिनेशन। अगर आपको यकीन है कि आप जो कर रहे हैं, वह सही है तो बात बन जाएगी। मैंने भी यही किया तो अंतत: मुझे कामयाबी मिल ही गई।
जिद ने ही वेटर से ऐक्टर बनाया
बोमन ईरानी, अभिनेता
यह मेरी जिद का ही नतीजा है कि मैं वेटर से ऐक्टर बन गया। मैं उम्र के बत्तीसवें साल तक मुंबई के होटल ताज में वेटर रहा। इसके बाद फोटोग्राफी शुरू की। पैंतीसवें साल में थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया। 44 साल की उम्र में पहली फिल्म मिली। जब काम मिला, तो सारी दुनिया पहली फिल्म से ही जान गई कि मैं क्या चीज हूं?
यह तो हमेशा से होता आया है कि लीक से हटकर काम करने वालों को समाज का विरोध झेलना पडता है, लेकिन जब आप विजेता बनकर सामने आते हैं तो लोगों की बोलती बंद हो जाती है। अपनी मंजिल को पाने की जिद में कई बार इंसान को दुनियादारी से कटना पडता है, पर इसके लिए परिवार को एतराज नहीं करना चाहिए। यह पार्ट ऑफ द जॉब है। कोई भी इंसान सिर्फ अपने लिए कामयाबी हासिल नहीं करता। इससे उसके परिवार का भी भला होता है। मेरे बच्चे भी मेरी तरह समझदार हैं। इसलिए कभी भी उन्हें डांटने की जरूरत नहीं पडी। वैसे, मेरा मानना है कि जिद्दी बच्चों को डांटने-फटकारने के बजाय अगर प्यार और तर्क से समझाया जाए तो वे विद्रोही नहीं बनते।
इनकी जिद को सलाम
मिल्खा सिंह
एथलीट मिल्खा सिंह जब वह बारह वर्ष के थे, तब देश के विभाजन के दौरान दंगाइयों ने उनके पूरे परिवार को उनकी आंखों के सामने मार डाला। उसके बाद किसी तरह बचते-बचाते भारत पहुंचकर उन्होंने अकेले अपनी जिंदगी शुरू की। तीन कोशिशों के बाद आर्मी में जगह मिली। उसके बाद उन्होंने दिन-रात कडी मेहनत करके प्रैक्टिस की और कामयाब एथलीट के रूप में अपनी पहचान बनाई।
डॉ. आनंदी बाई जोशी
इनकी शादी महज 9 साल की उम्र में हुई थी। आनंदी ने 14 वर्ष की उम्र में ही एक बेटे को जन्म दिया और दस दिनों के बाद ही शिशु की मृत्यु हो गई। इससे आनंदी को इतना दुख पहुंचा कि उन्होंने डॉक्टर बनने को संकल्प लिया और मेडिकल की पढाई करने ब्रिटेन गई और इन्हें देश की पहली लेडी डॉक्टर होने का गौरव प्राप्त हुआ।
जे. के. रॉलिंग
हैरी पॉटर जैसे बेस्ट सेलर सिरीज की लेखिका जे.के. रॉलिंग ने तलाक के बाद अपनी बेटी को पालने के लिए लिखना शुरू किया। वह घर के उदास माहौल से बाहर निकलकर कॉफी हाउस जातीं और वहां बैठकर घंटों लिखती रहतीं। उनकी उस कडी मेहनत का नतीजा सबके सामने है, हैरी पॉटर की लोकप्रियता के रूप में।
आंग सान सूकी
बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्षरत नेता आंग सांग सूकी का जीवन मुश्किलों से भरा रहा। 21 वर्षो तक उन्हें विपक्षियों ने नजरबंद रखा, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। वह बर्मा में लोकतंत्र बहाली के लिए अब भी लड रही हैं। इस वर्ष उनकी नजरबंदी खत्म हो गई और उन्होंने अपना वह पुराना नोबल पुरस्कार ग्रहण किया, जिसे 1991 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय शांति की स्थापना के लिए दिया गया था।
रविंदर कुहार, मॉडल
लिबर्टी, हीरो होंडा, ली, रिबॉक, एलजी, एयर इंडिया..ऐसे अनगिनत ब्रांड हैं, जिनके साथ आज मेरा नाम जुडा है, जो कल तक गुमनाम था। हरियाणा पुलिस में जॉब करते हुए मैं मॉडलिंग कर रहा हूं तो सिर्फ अपनी जिद की वजह से। बचपन में मुझे देख कर अकसर लोग कहते थे कि इसे तो मॉडलिंग में जाना चाहिए। तभी से मेरे भीतर मॉडल बनने की ख्वाहिश जाग गई। पेरेंट्स के सामने अपनी इच्छा जाहिर की तो उन्होंने सख्ती से मना कर किया। पापा का सख्त अनुशासन मुझे उनसे खुलकर अपनी बात कहने से रोकता था, लेकिन मैं मन ही मन मॉडलिंग की तैयारी में जुट गया। जिम जाना शुरू किया, तो शायद वह समझ गए। उनका कडा एतराज सामने आया। पापा, भैया और मां सबने कहा कि बेकार के कामों में वक्त बर्बाद मत करो। अब तक मैं उन्हीं की बात मान रहा था तभी तो पुलिस सर्विस के लिए परीक्षा दी और वहां मेरा चयन भी हो गया, पर मन हमेशा मॉडलिंग की दुनिया में जाने को बेताब रहता। मैंने लंबी छुट्टियां लेकर कई मॉडलिंग असाइनमेंट किए। इस पर मेरे माता-पिता नाराज भी हुए। वह मेरे जीवन का सबसे बुरा दौर था। मैंने दो-तीन महीने आर्थिक तंगी में गुजारे, पर अपनी जिद का साथ नहीं छोडा। इसी से मुझे हौसला मिलता था।
मैंने अपना शौक पूरा करने के लिए बहुत मुश्किलें उठाई। फिर भी यह सोचकर मुझे संतुष्टि मिलती है कि मैंने अपने माता-पिता की इच्छा का मान रखते हुए अपनी जिद पूरी कर ली, हालांकि दो नावों की यह सवारी बहुत मुश्किल है। देखें कब तक चलती है?
नकारे जाने के बावजूद टिके रहने की जिद
नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अभिनेता
मैं यूपी के बुढाना इलाके के संपन्न किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूं। वहां जितना गन्ना होता है, उतनी ही हत्याएं, डकैती और ऑनर किलिंग भी होती हैं। वहीं से नौकरी ढूंढने दिल्ली आया, लेकिन नौकरी नहीं मिली। मैं 1996 से ही थिएटर और फिल्मों की दुनिया जुडा हूं। एनएसडी का स्टूडेंट रह चुका हूं। इतना होने के बावजूद पहला ब्रेक छह साल बाद मिला। वह भी एक विज्ञापन फिल्म में, जिसमें सचिन आया रे भइया गाते हुए मैं कपडा पीट रहा था। वहां से लेकर कहानी, पान सिंह तोमर और गैंग्स ऑफ वासेपुर तक के सफर में लंबी उदासियां और जलता हुआ गुस्सा है। ढेर सारा कॉन्फिडेंस है। बार-बार नकारे जाने के बावजूद टिके रहने की जिद है। गांव में हुई परवरिश ने मुझे बेहद मेहनती और अनुशासित बना दिया है। अपनी मां को मैं दिन-रात कडी मेहनत करते देखता था। शायद, उन्हीं का असर मुझमें आया है। संघर्ष के दिनों में कई बार ऐसी भी नौबत आई कि मैं साल भर तक परिवार से संपर्क नहीं कर पाता था। उन्हें किस मुंह से बताता कि मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा। फिर भी मैंने अपना मनोबल टूटने नहीं दिया। आज मैं बहुत खुश हूं कि देर से ही सही, पर मेरी मेहनत रंग लाई।
बचपन से जिद्दी हूं मैं
प्रियंका चोपडा, अभिनेत्री
अमेरिका से भारत वापस आने के निर्णय ने मेरी जिंदगी की दिशा बदल दी। तब मैं 15 साल की थी और वहां पढाई कर रही थी। तभी मुझे ऐसा लगा कि यह जगह मेरे लिए सही नहीं है और यहां रह कर मुझे करियर नहीं बनाना। फिर बिना देर किए मैंने इंडिया आने का फैसला कर लिया। बचपन से ही मैं बहुत जिद्दी थी। इसीलिए मम्मी मुझ पर बहुत नाराज होती थीं, लेकिन पापा प्यार से समझाते थे। मैं शुरू से उनके ज्यादा करीब रही हूं। मैं मानती हूं कि जब तक आप किसी को नुकसान न पहुंचाएं, उस हद तक जिद्दी होने में कोई बुराई नहीं है। अगर आप माता-पिता की इच्छा के खिलाफ कोई काम करते हैं, तो उनकी नाराजगी झेलने को तैयार रहें, लेकिन आपके अंदर इतनी कुव्वत होनी चाहिए कि आप खुद को साबित कर सकें। मेरी सबसे बडी खासियत है, मैं परिवार को साथ लेकर चलती हूं और सारे दोस्तों से भी यही कहती हूं कि अगर आपका परिवार आपके साथ नहीं है तो आप सफल होकर भी नाकाम हैं। मैं बहुत खुश होऊंगी अगर मेरे बच्चे मुझसे जिद करेंगे और भरसक कोशिश करूंगी कि उनकी हर डिमांड पूरी करूं। क्योंकि मेरे पापा ने मेरी हर जिद पूरी की है।
जिद करो, दुनिया बदलो
आनंद कुमार, संस्थापक सुपर 30
जिद न की होती तो शायद मैं यहां खडा नहीं होता। आर्थिक तंगी की वजह से जब मेरा दाखिला कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में न हो सका तो निराशा हुई, लेकिन मैं हारा नहीं। मेरा लक्ष्य गणितज्ञ और शिक्षक बनना था, मैं उसी पर डटा रहा। सुपर 30 की स्थापना के समय लोगों ने यह कह कर मेरा मजाक उडाया था कि क्या कोई ऐसा कोचिंग संस्थान हो सकता है जिसके सभी विद्यार्थी भारत की सर्वोच्च इंजीनियरिंग परीक्षा पास कर जाएं, वह भी नि:शुल्क। मैंने ऐसी आलोचनाओं का जवाब जल्द ही दे दिया, जब पहले ही वर्ष संस्थान के 30 में से 18 निर्धन छात्रों ने यह परीक्षा पास की। शिक्षा माफिया के दबंग लोगों की धमकी मिली पर मैं रुका नहीं। मां ने समझाया, पत्नी ने भी बहुत कहा, पर मैं अपनी जिद पर डटा हुआ हूं। आज इस संस्थान से लगभग शत-प्रतिशत छात्र आईआईटी निकालते हैं। यही मेरी सबसे बडी ताकत है। जब निराश होता हूं, तो अपने छात्रों की कामयाबी मुझे फिर से काम करने के लिए प्रेरित करती है। मैं दिन-रात अपने काम में जुटा रहता हूं। मेरा मानना है कि अगर आप जिद करें और धैर्यपूर्वक उसे पूरा करें तो मंजिल जरूर मिलती है। यकीन मानिए रात जितनी अंधेरी होगी, सुबह उतनी ही रौशन होगी।
हौसले की होती है हमेशा जीत
जब भी दृढ इच्छाशक्ति की बात निकलती है तो दुष्यंत कुमार का यह शेर हमें बरबस याद आ जाता है- कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों..। साधनों की कमी की शिकायत करते हुए खुद कोई प्रयास न करना तो बेहद आसान है। ज्यादातर लोग करते भी यही हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनकी इच्छाशक्ति ही उनकी सबसे बडी पूंजी होती है। बिहार के गया जिले के छोटे से गांव गहलौर के दलित मजदूर दशरथ मांझी की जिद के आगे पर्वत को भी झुकना पडा। उन्होंने राह रोकने वाले पहाड का सीना चीर कर 365 फीट लंबा और 30 फीट चौडा रास्ता बना दिया। दरअसल पहाडी का रास्ता बहुत संकरा और उबड-खाबड था। उनकी पत्नी उसी रास्ते से पानी भरने जाती थीं। एक रोज उन्हें ठोकर लग गई और वह गिर पडीं। पत्नी के शरीर पर चोट के निशान देख दशरथ को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने उसी दम ठान लिया कि अब वह पहाडी को काटकर ऐसा रास्ता बनाएंगे, जिससे किसी को भी ठोकर न लगे। वह हाथों में छेनी-हथौडा लेकर पहाड काटने में जुट गए। तब लोग उन्हें पागल और सनकी समझते थे कि कोई अकेला आदमी पहाड काट सकता है भला! .पर उन्होंने अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनी। वह रोजाना सुबह से शाम तक अपने काम में जुटे रहते। उन्होंने 1960 में यह काम शुरू किया था और इसे पूरा करने में उन्हें 22 वर्ष लग गए। ..लेकिन अफसोस कि उनका यह काम पूरा होने से कुछ दिनों पहले ही उनकी पत्नी का निधन हो गया। वह अपनी सफलता की यह खुशी उनके साथ बांट न सके। उनकी इस कोशिश से ही बेहद लंबा घुमावदार पहाडी रास्ता छोटा और सुगम हो गया। अब दशरथ इस दुनिया में नहीं हैं पर वह रास्ता आज भी हमें उनके जिद्दी और जुझारू व्यक्तित्व की याद दिलाता है। उनकी दृढ इच्छाशक्ति को सम्मान देते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने कर्मचारियों के लिए दशरथ मांझी पुरस्कार की शुरुआत की है।
गुस्सा भी होता है अच्छा
जिद की तरह गुस्सा भी हमारी नकारात्मक भावनाओं में शुमार होता है और इन दोनों का बडा ही करीबी रिश्ता है। इस संबंध में मनोवैज्ञानिक सलाहकार डॉ. अशुम गुप्ता कहती हैं, अगर किसी दुर्भावना की वजह से गुस्सा आए और कोई किसी को नुकसान पहुंचाने की जिद करे तो निश्चित रूप से यह खतरनाक प्रवृत्ति है। इससे इंसान केवल दूसरों का ही नहीं, बल्कि अपना भी अहित कर रहा होता है। हमारी मानसिक संरचना में ये दोनों भावनाएं बिजली की तरह काम करती हैं। अगर सही जगह पर इनका इस्तेमाल किया जाए तो चारों ओर रौशनी फैल सकती है। अगर इनका गलत इस्तेमाल हो तो पल भर में जल कर सब कुछ खाक हो सकता है। यहां असली मुद्दा नकारात्मक भावनाओं को सकारात्मक ढंग से चैनलाइज करने का है। अगर बच्चा अपनी मनपसंद चीज लेने की जिद करता है तो बडों को हमेशा उसकी जिद पूरी नहीं करनी चाहिए, बल्कि उससे यह वादा लेना चाहिए कि तुम परीक्षा में अच्छे मार्क्स लाओ तो तुम्हारी मांग जरूर पूरी की जाएगी। इससे उसे यह एहसास होगा कि बिना मेहनत के कुछ भी हासिल नहीं होता और उसकी जिद पढाई की ओर रुख कर लेगी।
गुस्से के सकारात्मक इस्तेमाल के संदर्भ में चिपको आंदोलन के अग्रणी नेता सुंदर लाल बहुगुणा द्वारा कही गई एक बात बरबस याद आ जाती है, पेड काटने वाले लोगों को देखकर मुझे बहुत ज्यादा गुस्सा आता है। इसलिए मैंने यह संकल्प लिया है कि इतने पेड लाऊंगा कि काटने वाले भले ही थक जाएं, फिर भी हमारी धरती हमेशा हरी-भरी बनी रहे। सच, लाचारी भरी शांति से तो ऐसा गुस्सा हजार गुना बेहतर है, जिससे देश और समाज का भला हो।
दिल पर लगी तो बात बनी
कई बार हमें दुख पहुंचाने वाले या हमारे साथ बुरा बर्ताव करने वाले लोग अनजाने में ही सही, लेकिन हमारी भलाई कर जाते हैं। इस संबंध में डॉ. अशुम गुप्ता आगे कहती हैं, कई बार दूसरों द्वारा कही गई कडवी बात हमारे लिए शॉक ट्रीटमेंट का काम करती है। ऐसी बातें सुनकर हमारा सोया हुआ जमीर जाग उठता है। फिर हम कई ऐसे मुश्किल काम भी कर गुजरते हैं, जिनके बारे में आमतौर पर सोचना भी असंभव लगता है। जरा सोचिए कि अगर तुलसीदास को अपनी पत्नी रत्नावली की बात दिल पर न लगी होती तो आज हिंदी साहित्य श्रीरामचरितमानस जैसे महाकाव्य से वंचित रह जाता। अगर दक्षिण अफ्रीका के पीट्मेरीज्बर्ग स्टेशन पर उस टीटी ने बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी का सामान ट्रेन की फर्स्ट क्लास की बोगी से बाहर न फेंका होता तो शायद आज भारत का इतिहास कुछ और ही होता।
जब बात हो अपनों की
जिद के साथ कहीं न कहीं अपनों का प्यार और उनकी भावनाएं भी जुडी होती हैं। दिल्ली की मैरी बरुआ का इकलौता बेटा ऑटिज्म से पीडित था। वह दिन-रात उसकी देखभाल में जुटी रहतीं। वह कहती हैं, मेरे लिए मेरा बेटा ही सब कुछ है। मैंने उसकी खातिर ऐसे बच्चों को ट्रेनिंग देने का स्पेशल कोर्स किया। उसी दौरान मुझे यह खयाल आया कि सिर्फ मेरा ही बेटा क्यों.? ऐसे दूसरे बच्चों को भी ट्रेनिंग देकर मैं उन्हें कम से कम इस लायक तो बना दूं कि ये अपने रोजमर्रा के काम खुद करने में सक्षम हों और बडे होने के बाद सामान्य जिंदगी जी सकें। तभी से मैंने ऑटिज्म से पीडित दूसरे बच्चों की देखभाल शुरू कर दी। इससे मेरे मन को बहुत सुकून मिलता है। अब जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है, बल्कि ऐसा महसूस होता है कि ईश्वर ने मुझे इस काबिल समझा, तभी तो ऐसे बच्चों की जिम्मेदारी मुझे सौंपी है।
फर्क चश्मे का
अकसर हम लोगों के अडियल व्यवहार को नापसंद करते हैं। आकांक्षा जैन एक निजी कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर हैं। इस संबंध में उनका कहना हैं, शुरू से मेरी आदत रही है कि अगर मैंने एक बार कोई काम ठान लिया तो चाहे बीच कितनी ही बाधाएं क्यों न आएं मैं उसे पूरा करके ही दम लेती हूं। मेरी इस आदत की वजह से लोग मुझसे नाराज भी होते हैं, पर बाद में जब वह काम अच्छी तरह पूरा हो जाता है तो उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है। अडियल या परफेक्शनिस्ट होने में कोई बुराई नहीं है। अगर हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक हो तो हमें लोगों के जिद्दी व्यवहार का अच्छा पहलू भी नजर आएगा। अगर ऐसा न हो तो दूसरों के हर अच्छे व्यवहार में भी बुराई नजर आएगी।
सामाजिक स्वीकृति में दिक्कत
इस संबंध में समाजशास्त्री डॉ. शैलजा मेनन कहती हैं, किसी भी समाज में हमेशा वही व्यवहार स्वीकार्य होता है, जिससे सामने वाले व्यक्ति को कोई असहमति न हो। अगर कोई व्यक्ति लीक से हट कर कुछ भी करना चाहता है तो उसके आसपास के लोग उसे सहजता से स्वीकार नहीं पाते और वे ऐसे व्यक्ति को शक की निगाहों से देखते हैं।
अपनी ही धुन में लगे रहने वाले ऐसे क्रिएटिव लोगों को शुरुआती दौर में अकसर आलोचना का सामना करना पडता है, लेकिन उन पर नकारात्मकबातों का कोई असर नहीं होता। बाद में दुनिया को उनकी काबिलीयत की पहचान होती है और लोग उन्हें सुपर हीरो बना देते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
महान इटैलियन वैज्ञानिक गैलीलियो की जिंदगी इसकी सबसे बडी मिसाल है। उन्होंने उस पारंपरिक धारणा का खंडन किया था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है। उन्होंने ही सबसे पहले इस बात की खोज की थी कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है। आज उसी वेटिकन सिटी के चर्च में उनकी मूर्ति लगाई जा रही है, जहां 400 साल पहले उनकी इस खोज को धार्मिक ग्रंथों के खिलाफ बताते हुए उन्हें यातना शिविर में बंद किया गया था और घोर शारीरिक-मानसिक यातनाएं दी गई थीं। अब सदियों बाद अपने इस प्रयास से चर्च अपनी उस पुरानी गलती का पश्चात्ताप करना चाहता है।
सामाजिक स्वीकृति में दिक्कत
जिद्दी और जोशीले लोगों को चुनौतियां स्वीकारना बहुत अच्छा लगता है। इस संबंध में सॉफ्टवेयर इंजीनियर सिद्धार्थ शर्मा का कहना है, हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। हमारे पिता बेहद मामूली सी नौकरी करते थे। हम छह भाई-बहनों की परवरिश बहुत मुश्किल थी। मैं इंजीनियर बनना चाहता था, पर मुझे मालूम था कि इसके लिए पिताजी पैसे नहीं जुटा पाएंगे। इसलिए जी जान से पढाई में जुटा रहता। मैंने ठान लिया था कि मैं केवल मेहनत के बल पर अपना सपना साकार करूंगा। बिना किसी कोचिंग के आईआईटी के लिए मेरा चयन हो गया। आगे की पढाई का खर्च मैंने खुद ट्यूशन करके उठाया। आज इंजीनियर बनने से कहीं ज्यादा, मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने संसाधनों की कमी के बावजूद विपरीत परिस्थितियों में भी कामयाबी हासिल की है। अगर कामयाबी ज्यादा मुश्किलें उठाने के बाद मिले तो उसका मजा दोगुना हो जाता है।
विकी रॉय फोटोग्राफर जिद से मिली जीत मैं पश्चिम बंगाल के पुरूलिया जिले का रहने वाला हूं। वहां गरीबी और मामा-मामी की मारपीट से तंग आकर नौ साल की उम्र में घर से भागकर दिल्ली चला आया। फिर यहां कबाड बीनने से लेकर ढाबे में प्लेटें धोने जैसे कई काम किए। एक रोज ढाबे में मुझे स्वयंसेवी संस्था सलाम बालक ट्रस्ट के कार्यकर्ता संजय श्रीवास्तव मिल गए। वह मुझे अपने साथ संस्था में ले गए। वहां रहकर मैंने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। मुझे नई-नई जगहें देखने का बहुत शौक है। देश-विदेश घूमने के लालच में ही मैंने फोटोग्राफर बनने का निश्चय किया। सबसे पहले मैं फोटोग्राफी के एक वर्कशॉप में शामिल हुआ। वहां इससे जुडी बेसिक बातें सीखने के बाद मैंने अपनी संस्था से इंट्रेस्ट फ्री लोन लेकर एक कैमरा खरीदा। इसी दौरान मेरी मुलाकात ब्रिटिश फोटोग्राफर बिक्सी बेंजामिन से हुई। मुझे उनके साथ रह कर बहुत कुछ सीखने को मिला। पहले अंग्रेजी समझने में मुझे थोडी दिक्कत जरूर होती थी, फिर भी उनकी एक्टिविटीज देखकर मैं काम का सही तरीका समझ जाता था। इस दौरान द.अफ्रीका, वियतनाम, ब्रिटेन और स्विट्जरलैंड में मुझे अपनी तसवीरों की प्रदर्शनी लगाने का मौका मिला। 2009 में मुझे छह महीने के लिए अमेरिका के इंटरनेशनल सेंटर ऑफ फोटोग्राफी में प्रशिक्षण लेने का अवसर मिला। इतना ही नहीं, उन दिनों वहां वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के रीकंस्ट्रक्शन का काम चल रहा था। मैंने उसकी कुछ ऐसी तसवीरें उतारीं, जिसे कई अंतरराष्ट्रीय फोटो प्रदर्शनियों में शामिल किया गया और लोगों ने उन्हें बहुत पसंद किया। बचपन से ही मैं जिल्लत और जलालत भरी जिंदगी से बाहर निकलने की कोशिश में जुटा था। मुझे ऐसा लगता है कि बिना जिद के कोई भी लडाई जीतना असंभव है। आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनने के बाद अब मैं मां और छोटे भाई-बहनों की सारी जिम्मेदारियां निभा रहा हूं।
अब भी नहीं सुधरी मैं
प्राची देसाई, अभिनेत्री
बचपन से मेरी एक ही जिद थी कि मुझे ऐक्ट्रेस बनना है। इसी जिद ने मेरी जिंदगी की दिशा बदल दी। हमारे परिवार का फिल्मों से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। इसलिए मुझे तो यह भी पता नहीं था कि मेरा यह सपना कैसे पूरा होगा। मैं पंचगनी के एक बोर्डिग स्कूल में पढाई कर रही थी। इसलिए बाहर की दुनिया के बारे में मुझे कोई खास जानकारी नहीं थी। मुझे तो यह भी नहीं मालूा था कि ऑडिशन कहां और कैसे होते हैं ? अभिनय के सिवा मेरा और कोई फोकस नहीं था। बारहवीं पास करते ही मैंने मॉडलिंग के फील्ड से अपने करियर की शुरुआत की जो छोटे परदे के रास्ते से होते हुए बडे परदे तक पहुंची। बचपन में बहुत जिद्दी और शरारती थी। काफी मार खाई है मैंने, पर अब तक नहीं सुधरी। जब 12 साल की हो गई, तब पेरेंट्स ने मजबूरन मुझ पर हाथ उठाना बंद कर दिया।
जब आप लीक से हटकर कुछ अलग करना चाहते हैं तो आपको उसकी कीमत चुकानी पडती है। इसमें काफी तनाव भी होता है और उससे निकलने का एक ही तरीका है- डिटर्मिनेशन। अगर आपको यकीन है कि आप जो कर रहे हैं, वह सही है तो बात बन जाएगी। मैंने भी यही किया तो अंतत: मुझे कामयाबी मिल ही गई।
जिद ने ही वेटर से ऐक्टर बनाया
बोमन ईरानी, अभिनेता
यह मेरी जिद का ही नतीजा है कि मैं वेटर से ऐक्टर बन गया। मैं उम्र के बत्तीसवें साल तक मुंबई के होटल ताज में वेटर रहा। इसके बाद फोटोग्राफी शुरू की। पैंतीसवें साल में थिएटर ग्रुप ज्वाइन किया। 44 साल की उम्र में पहली फिल्म मिली। जब काम मिला, तो सारी दुनिया पहली फिल्म से ही जान गई कि मैं क्या चीज हूं?
यह तो हमेशा से होता आया है कि लीक से हटकर काम करने वालों को समाज का विरोध झेलना पडता है, लेकिन जब आप विजेता बनकर सामने आते हैं तो लोगों की बोलती बंद हो जाती है। अपनी मंजिल को पाने की जिद में कई बार इंसान को दुनियादारी से कटना पडता है, पर इसके लिए परिवार को एतराज नहीं करना चाहिए। यह पार्ट ऑफ द जॉब है। कोई भी इंसान सिर्फ अपने लिए कामयाबी हासिल नहीं करता। इससे उसके परिवार का भी भला होता है। मेरे बच्चे भी मेरी तरह समझदार हैं। इसलिए कभी भी उन्हें डांटने की जरूरत नहीं पडी। वैसे, मेरा मानना है कि जिद्दी बच्चों को डांटने-फटकारने के बजाय अगर प्यार और तर्क से समझाया जाए तो वे विद्रोही नहीं बनते।
इनकी जिद को सलाम
मिल्खा सिंह
एथलीट मिल्खा सिंह जब वह बारह वर्ष के थे, तब देश के विभाजन के दौरान दंगाइयों ने उनके पूरे परिवार को उनकी आंखों के सामने मार डाला। उसके बाद किसी तरह बचते-बचाते भारत पहुंचकर उन्होंने अकेले अपनी जिंदगी शुरू की। तीन कोशिशों के बाद आर्मी में जगह मिली। उसके बाद उन्होंने दिन-रात कडी मेहनत करके प्रैक्टिस की और कामयाब एथलीट के रूप में अपनी पहचान बनाई।
डॉ. आनंदी बाई जोशी
इनकी शादी महज 9 साल की उम्र में हुई थी। आनंदी ने 14 वर्ष की उम्र में ही एक बेटे को जन्म दिया और दस दिनों के बाद ही शिशु की मृत्यु हो गई। इससे आनंदी को इतना दुख पहुंचा कि उन्होंने डॉक्टर बनने को संकल्प लिया और मेडिकल की पढाई करने ब्रिटेन गई और इन्हें देश की पहली लेडी डॉक्टर होने का गौरव प्राप्त हुआ।
जे. के. रॉलिंग
हैरी पॉटर जैसे बेस्ट सेलर सिरीज की लेखिका जे.के. रॉलिंग ने तलाक के बाद अपनी बेटी को पालने के लिए लिखना शुरू किया। वह घर के उदास माहौल से बाहर निकलकर कॉफी हाउस जातीं और वहां बैठकर घंटों लिखती रहतीं। उनकी उस कडी मेहनत का नतीजा सबके सामने है, हैरी पॉटर की लोकप्रियता के रूप में।
आंग सान सूकी
बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्षरत नेता आंग सांग सूकी का जीवन मुश्किलों से भरा रहा। 21 वर्षो तक उन्हें विपक्षियों ने नजरबंद रखा, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। वह बर्मा में लोकतंत्र बहाली के लिए अब भी लड रही हैं। इस वर्ष उनकी नजरबंदी खत्म हो गई और उन्होंने अपना वह पुराना नोबल पुरस्कार ग्रहण किया, जिसे 1991 में उन्हें अंतरराष्ट्रीय शांति की स्थापना के लिए दिया गया था।
रविंदर कुहार, मॉडल
लिबर्टी, हीरो होंडा, ली, रिबॉक, एलजी, एयर इंडिया..ऐसे अनगिनत ब्रांड हैं, जिनके साथ आज मेरा नाम जुडा है, जो कल तक गुमनाम था। हरियाणा पुलिस में जॉब करते हुए मैं मॉडलिंग कर रहा हूं तो सिर्फ अपनी जिद की वजह से। बचपन में मुझे देख कर अकसर लोग कहते थे कि इसे तो मॉडलिंग में जाना चाहिए। तभी से मेरे भीतर मॉडल बनने की ख्वाहिश जाग गई। पेरेंट्स के सामने अपनी इच्छा जाहिर की तो उन्होंने सख्ती से मना कर किया। पापा का सख्त अनुशासन मुझे उनसे खुलकर अपनी बात कहने से रोकता था, लेकिन मैं मन ही मन मॉडलिंग की तैयारी में जुट गया। जिम जाना शुरू किया, तो शायद वह समझ गए। उनका कडा एतराज सामने आया। पापा, भैया और मां सबने कहा कि बेकार के कामों में वक्त बर्बाद मत करो। अब तक मैं उन्हीं की बात मान रहा था तभी तो पुलिस सर्विस के लिए परीक्षा दी और वहां मेरा चयन भी हो गया, पर मन हमेशा मॉडलिंग की दुनिया में जाने को बेताब रहता। मैंने लंबी छुट्टियां लेकर कई मॉडलिंग असाइनमेंट किए। इस पर मेरे माता-पिता नाराज भी हुए। वह मेरे जीवन का सबसे बुरा दौर था। मैंने दो-तीन महीने आर्थिक तंगी में गुजारे, पर अपनी जिद का साथ नहीं छोडा। इसी से मुझे हौसला मिलता था।
मैंने अपना शौक पूरा करने के लिए बहुत मुश्किलें उठाई। फिर भी यह सोचकर मुझे संतुष्टि मिलती है कि मैंने अपने माता-पिता की इच्छा का मान रखते हुए अपनी जिद पूरी कर ली, हालांकि दो नावों की यह सवारी बहुत मुश्किल है। देखें कब तक चलती है?
नकारे जाने के बावजूद टिके रहने की जिद
नवाजुद्दीन सिद्दीकी, अभिनेता
मैं यूपी के बुढाना इलाके के संपन्न किसान परिवार से ताल्लुक रखता हूं। वहां जितना गन्ना होता है, उतनी ही हत्याएं, डकैती और ऑनर किलिंग भी होती हैं। वहीं से नौकरी ढूंढने दिल्ली आया, लेकिन नौकरी नहीं मिली। मैं 1996 से ही थिएटर और फिल्मों की दुनिया जुडा हूं। एनएसडी का स्टूडेंट रह चुका हूं। इतना होने के बावजूद पहला ब्रेक छह साल बाद मिला। वह भी एक विज्ञापन फिल्म में, जिसमें सचिन आया रे भइया गाते हुए मैं कपडा पीट रहा था। वहां से लेकर कहानी, पान सिंह तोमर और गैंग्स ऑफ वासेपुर तक के सफर में लंबी उदासियां और जलता हुआ गुस्सा है। ढेर सारा कॉन्फिडेंस है। बार-बार नकारे जाने के बावजूद टिके रहने की जिद है। गांव में हुई परवरिश ने मुझे बेहद मेहनती और अनुशासित बना दिया है। अपनी मां को मैं दिन-रात कडी मेहनत करते देखता था। शायद, उन्हीं का असर मुझमें आया है। संघर्ष के दिनों में कई बार ऐसी भी नौबत आई कि मैं साल भर तक परिवार से संपर्क नहीं कर पाता था। उन्हें किस मुंह से बताता कि मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा। फिर भी मैंने अपना मनोबल टूटने नहीं दिया। आज मैं बहुत खुश हूं कि देर से ही सही, पर मेरी मेहनत रंग लाई।
बचपन से जिद्दी हूं मैं
प्रियंका चोपडा, अभिनेत्री
अमेरिका से भारत वापस आने के निर्णय ने मेरी जिंदगी की दिशा बदल दी। तब मैं 15 साल की थी और वहां पढाई कर रही थी। तभी मुझे ऐसा लगा कि यह जगह मेरे लिए सही नहीं है और यहां रह कर मुझे करियर नहीं बनाना। फिर बिना देर किए मैंने इंडिया आने का फैसला कर लिया। बचपन से ही मैं बहुत जिद्दी थी। इसीलिए मम्मी मुझ पर बहुत नाराज होती थीं, लेकिन पापा प्यार से समझाते थे। मैं शुरू से उनके ज्यादा करीब रही हूं। मैं मानती हूं कि जब तक आप किसी को नुकसान न पहुंचाएं, उस हद तक जिद्दी होने में कोई बुराई नहीं है। अगर आप माता-पिता की इच्छा के खिलाफ कोई काम करते हैं, तो उनकी नाराजगी झेलने को तैयार रहें, लेकिन आपके अंदर इतनी कुव्वत होनी चाहिए कि आप खुद को साबित कर सकें। मेरी सबसे बडी खासियत है, मैं परिवार को साथ लेकर चलती हूं और सारे दोस्तों से भी यही कहती हूं कि अगर आपका परिवार आपके साथ नहीं है तो आप सफल होकर भी नाकाम हैं। मैं बहुत खुश होऊंगी अगर मेरे बच्चे मुझसे जिद करेंगे और भरसक कोशिश करूंगी कि उनकी हर डिमांड पूरी करूं। क्योंकि मेरे पापा ने मेरी हर जिद पूरी की है।
जिद करो, दुनिया बदलो
आनंद कुमार, संस्थापक सुपर 30
जिद न की होती तो शायद मैं यहां खडा नहीं होता। आर्थिक तंगी की वजह से जब मेरा दाखिला कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में न हो सका तो निराशा हुई, लेकिन मैं हारा नहीं। मेरा लक्ष्य गणितज्ञ और शिक्षक बनना था, मैं उसी पर डटा रहा। सुपर 30 की स्थापना के समय लोगों ने यह कह कर मेरा मजाक उडाया था कि क्या कोई ऐसा कोचिंग संस्थान हो सकता है जिसके सभी विद्यार्थी भारत की सर्वोच्च इंजीनियरिंग परीक्षा पास कर जाएं, वह भी नि:शुल्क। मैंने ऐसी आलोचनाओं का जवाब जल्द ही दे दिया, जब पहले ही वर्ष संस्थान के 30 में से 18 निर्धन छात्रों ने यह परीक्षा पास की। शिक्षा माफिया के दबंग लोगों की धमकी मिली पर मैं रुका नहीं। मां ने समझाया, पत्नी ने भी बहुत कहा, पर मैं अपनी जिद पर डटा हुआ हूं। आज इस संस्थान से लगभग शत-प्रतिशत छात्र आईआईटी निकालते हैं। यही मेरी सबसे बडी ताकत है। जब निराश होता हूं, तो अपने छात्रों की कामयाबी मुझे फिर से काम करने के लिए प्रेरित करती है। मैं दिन-रात अपने काम में जुटा रहता हूं। मेरा मानना है कि अगर आप जिद करें और धैर्यपूर्वक उसे पूरा करें तो मंजिल जरूर मिलती है। यकीन मानिए रात जितनी अंधेरी होगी, सुबह उतनी ही रौशन होगी।
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