1971 में हर जगह वाहवाही लूटने के बावजूद कम से कम एक मौक़ा ऐसा आया जब पाकिस्तानी नौसेना भारतीय नौसेना पर भारी पड़ी.
नौसेना को अंदाज़ा था कि युद्ध शुरू होने पर पाकिस्तानी पनडुब्बियाँ मुंबई बंदरगाह को अपना निशाना बनाएंगी. इसलिए उन्होंने तय किया कि लड़ाई शुरू होने से पहले सारे नौसेना फ़्लीट को मुंबई से बाहर ले जाया जाए.उस पनडुब्बी में तैनात लेफ़्टिनेंट कमांडर और बाद मे रियर एडमिरल बने तसनीम अहमद याद करते हैं, "पूरा का पूरा भारतीय फ़्लीट हमारे सिर के ऊपर से गुज़रा और हम हाथ मलते रह गए क्योंकि हमारे पास हमला करने के आदेश नहीं थे क्योंकि युद्ध औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुआ था. कंट्रोल रूम में कई लोगों ने टॉरपीडो फ़ायर करने के लिए बहुत ज़ोर डाला लेकिन हमने उनकी बात सुनी नहीं. हमला करना युद्ध शुरू करने जैसा होता. मैं उस समय मात्र लेफ़्टिनेंट कमांडर था. मैं अपनी तरफ़ से तो लड़ाई शुरू नहीं कर सकता था."
पाकिस्तानी पनडुब्बी उसी इलाक़े में घूमती रही. इस बीच उसकी एयरकंडीशनिंग में कुछ दिक्कत आ गई और उसे ठीक करने के लिए उसे समुद्र की सतह पर आना पड़ा.
36 घंटों की लगातार मशक्कत के बाद पनडुब्बी ठीक कर ली गई. लेकिन उसकी ओर से भेजे संदेशों से भारतीय नौसेना को यह अंदाज़ा हो गया कि एक पाकिस्तानी पनडुब्बी दीव के तट के आसपास घूम रही है.
नौसेना मुख्यालय ने आदेश दिया कि भारतीय जल सीमा में घूम रही इस पनडुब्बी को तुरंत नष्ट किया जाए और इसके लिए एंटी सबमरीन फ़्रिगेट आईएनएस खुखरी और कृपाण को लगाया गया.
दोनों पोत अपने मिशन पर आठ दिसंबर को मुंबई से चले और नौ दिसंबर की सुबह होने तक उस इलाक़े में पहुँच गए जहाँ पाकिस्तानी पनडुब्बी के होने का संदेह था.
टोह लेने की लंबी दूरी की अपनी क्षमता के कारण हंगोर को पहले ही खुखरी और कृपाण के होने का पता चल गया. यह दोनों पोत ज़िग ज़ैग तरीक़े से पाकिस्तानी पनडुब्बी की खोज कर रहे थे.
हंगोर ने उनके नज़दीक आने का इंतज़ार किया. पहला टॉरपीडो उसने कृपाण पर चलाया. लेकिन टॉरपीडो उसके नीचे से गुज़र गया और फटा ही नहीं.
3000 मीटर से निशाना
हंगोर के पास विकल्प थे कि वह वहाँ से भागने की कोशिश करे या दूसरा टॉरपीडो फ़ायर करे. उसने दूसरा विकल्प चुना.
तसनीम अहमद याद करते हैं, "मैंने हाई स्पीड पर टर्न अराउंड करके खुखरी पर पीछे से फ़ायर किया. डेढ़ मिनट की रन थी और मेरा टॉरपीडो खुखरी की मैगज़ीन के नीचे जा कर एक्सप्लोड हुआ और दो या तीन मिनट के भीतर जहाज़ डूबना शुरू हो गया."
खुखरी में परंपरा थी कि रात आठ बजकर 45 मिनट के समाचार सभी इकट्ठा होकर एक साथ सुना करते थे ताकि उन्हें पता रहे कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा है.
समाचार शुरू हुए, 'यह आकाशवाणी है, अब आप अशोक बाजपेई से समाचार...' समाचार शब्द पूरा नहीं हुआ था कि पहले टारपीडो ने खुखरी को हिट किया. कैप्टेन मुल्ला अपनी कुर्सी से गिर गए और उनका सिर लोहे से टकराया और उनके सिर से ख़ून बहने लगा.
दूसरा धमाका होते ही पूरे पोत की बत्ती चली गई. कैप्टेन मुल्ला ने मनु शर्मा को आदेश दिया कि वह पता लगाएं कि क्या हो रहा है.
मनु ने देखा कि खुखरी में दो छेद हो चुके थे और उसमें तेज़ी से पानी भर रहा था. उसके फ़नेल से लपटें निकल रही थीं.
उधर सब लेफ़्टिनेंट समीर काँति बसु भाग कर ब्रिज पर पहुँचे. उस समय कैप्टेन मुल्ला चीफ़ योमेन से कह रहे थे कि वह पश्चिमी नौसेना कमान के प्रमुख को सिग्नल भेजें कि खुखरी पर हमला हुआ है.
बसु इससे पहले कि कुछ समझ पाते कि क्या हो रहा है पानी उनके घुटनों तक पहुँच गया था. लोग जान बचाने के लिए इधर उधर भाग रहे थे. खुखरी का ब्रिज समुद्री सतह से चौथी मंज़िल पर था. लेकिन मिनट भर से कम समय में ब्रिज और समुद्र का स्तर बराबर हो चुका था.
कैप्टेन मुल्ला ने बसु की तरफ़ देखा और कहा, 'बच्चू नीचे उतरो.' बसु पोत के फ़ौलाद की सुरक्षा छोड़ कर अरब सागर की भयानक लहरों के बीच कूद गए.
समुद्र का पानी बर्फ़ से भी ज़्यादा ठंडा था और समुद्र में पाँच-छह फ़ीट ऊँची लहरें उठ रही थीं.
मुल्ला ने जहाज़ छोड़ने से इनकार किया
"पूरा का पूरा भारतीय फ़्लीट हमारे सिर के ऊपर से गुज़रा और हम हाथ मलते रह गए क्योंकि हमारे पास हमला करने के आदेश नहीं थे क्योंकि युद्ध औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुआ था. कंट्रोल रूम में कई लोगों ने टॉरपीडो फ़ायर करने के लिए बहुत ज़ोर डाला लेकिन हमने उनकी बात सुनी नहीं. हमला करना युद्ध शुरू करने जैसा होता. मैं उस समय मात्र लेफ़्टिनेंट कमांडर था. मैं अपनी तरफ़ से तो लड़ाई शुरू नहीं कर सकता था"
तहसीन अहमद
जब मनु शर्मा ने समुद्र में छलांग लगाई तो पूरे पानी में आग लगी हुई थी और उन्हे सुरक्षित बचने के लिए आग के नीचे से तैरना पड़ा.
थोड़ी दूर जाकर मनु ने देखा कि खुखरी का अगला हिस्सा 80 डिग्री को कोण बनाते हुए लगभग सीधा हो गया है. पूरे पोत मे आग लगी हुई है और कैप्टेन मुल्ला अपनी सीट पर बैठे रेलिंग पकड़े हुए हैं और उनके हाथ में अब भी जली हुई सिगरेट है.
जब अंतत: खुखरी डूबा तो बहुत ज़बरदस्त सक्शन प्रभाव हुआ और वह अपने साथ कैप्टेन मुल्ला समेत सैकड़ों नाविकों और मलबे को नीचे ले गया.
चारों तरफ़ मदद के लिए शोर मचा हुआ था लेकिन जब खुखरी आँखों से ओझल हुआ तो शोर कुछ देर के लिए थम सा गया.
बचने वालों की आँखे जल रही थीं. समुद्र में तेल फैला होने के कारण लोग उल्टियाँ कर रहे थे.
खुखरी के डूबने के 40 मिनट बाद लेफ़्टिनेंट बसु को कुछ दूरी पर कुछ रोशनी दिखाई दी. उन्होंने उसकी तरफ़ तैरना शुरू कर दिया. जब वह उसके पास पहुँचे तो उन्होंनें पाया कि वह एक लाइफ़ राफ़्ट थी जिसमें 20 लोग बैठ सकते थे.
एक-एक कर 29 लोग उन 20 लोगों की क्षमता वाली राफ़्ट पर चढ़े. उस समय रात के दस बज चुके थे. अब उम्मीद थी कि शायद ज़िंदगी बच जाए.
राफ़्ट हवा और लहरों के साथ हिचकोले खाती रही. भाग्यवश राफ़्ट पर पीने का पानी और खाने के लिए चॉकलेट्स और बिस्कुट थे.
"थोड़ी दूर जाकर मनु ने देखा कि खुखरी का अगला हिस्सा 80 डिग्री को कोण बनाते हुए लगभग सीधा हो गया है. पूरे पोत मे आग लगी हुई है और कैप्टेन मुल्ला अपनी सीट पर बैठे रेलिंग पकड़े हुए हैं और उनके हाथ में अब भी जली हुई सिगरेट है."
थोड़ी देर बाद दो और विमान आते दिखाई दिए. सब लेफ़्टिनेंट बसु और अहलुवालिया ने फिर वही ड्रिल दोहराई. इस बार विमान ने उनको देख लिया. लेकिन वह वापस चला गया.
थोड़ी देर बाद उन्हें क्षितिज पर पानी के जहाज़ के तीन मस्तूल दिखाई दिए. यह जहाज़ आईएनएस कछाल था जिसे कैप्टेन ज़ाडू कमांड कर रहे थे.
एक-एक कर सभी नाविकों को जहाज़ पर चढ़ाया गया. बचने वालों की संख्या थी 64. सभी को गर्म कंबल और गरमा-गरम चाय दी गई.
इन लोगों ने पूरे 14 घंटे खुले आसमान में समुद्री लहरों को बीच बिताए थे. लेकिन इस बीच एक घायल नाविक टॉमस की मौत हो गई. उसके पार्थिव शरीर के तिरंगे में लिपटा कर उसे समुद्र में ही दफ़ना दिया गया.
कुल मिला कर भारत के 174 नाविक और 18 अधिकारी इस ऑपरेशन में मारे गए.
अगले कई दिनों तक भारतीय नौसेना हंगोर की तलाश में जुटी रही. हंगोर पर सवार एक नाविक के अनुसार भारतीय नौसेना ने हंगोर पर 156 डेप्थ चार्ज हमले किए, लेकिन यह पनडुब्बी इन सबसे बचते हुए 16 दिसंबर को सुरक्षित कराची पहुँची.
दोनों कमांडरों को वीरता पदक
कैप्टेन महेंद्रनाथ मुल्ला ने नौसेना की सर्वोच्च परंपरा का निर्वाह करते हुए अपना जहाज़ नहीं छोड़ा और जल समाधि ली. उनकी इस वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र दिया गया.
तसनीम अहमद को खुखरी को डुबाने के लिए पाकिस्तान की तरफ़ से सितार-ए-जुर्रत से सम्मानित किया गया. दूसरे विश्व युद्ध के बाद यह पहला मौक़ा था, जब किसी पनडुब्बी ने किसी पोत को डुबोया था.
बाद में 1982 मे फ़ॉकलैंड युद्ध में ब्रिटेन ने 1982 में अर्जेंटीना के पोत एआरए जनरल बेग्रानो को परमाणु पनडुब्बी काँकरर के ज़रिए डुबोया था.
No comments:
Post a Comment