साहित्य
व पत्रकारिता के क्षेत्र में रचनात्मक लेखन के लिए बिहार की जो पहचान है
उसकी बुनियाद आचार्य शिवपूजन सहाय सरीखे व्यक्तित्व की देन है। उनकी
बहुआयामी प्रतिभा के कारण ही राष्ट्रीय फलक पर साहित्य के पुरोधा आज तक यह
तय नहीं कर पाये कि सहाय जी एक महान साहित्यकार थे या फिर एक महान पत्रकार।
बिहारी अस्मिता को शब्दों में गढ़ उन्होंने जो धार दी, उसी पर दुनिया के
कोने-कोने में आज भी यहां की पीढ़ी अपने बिहारीपन पर इतराती है।
साहित्य के शिव कहे जाने वाले आचार्य शिवपूजन सहाय का जन्म 9 अगस्त 1893 को
बक्सर के इटाढ़ी प्रखंड अंतर्गत उनवांस गांव में एक मध्यम वर्गीय परिवार
में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा गांव में लेने के बाद उनकी शिक्षा-दीक्षा आरा
में हुई। वहीं, वर्ष 1921 तक उन्होंने हिंदी भाषा शिक्षक के रूप में
अध्यापन कार्य किया। पत्रकारिता जगत में उनका प्रवेश वर्ष 1923 में हुआ। तब
बिहारी अस्मिता को गढ़ने का सिलसिला बाबू राजेन्द्र प्रसाद व
डा.सच्चिदानंद सिन्हा सरीखे लोग शुरू कर चुके थे। सहाय जी ने तब कोलकाता
में 'मतवाला' नामक पत
्र में संपादक की
हैसियत से कार्य संभाला। एक साल बाद ही वे लखनऊ चले गये जहां पत्रिका
'माधुरी' का संपादन किया। इस दौरान उन्हें महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद का
सानिध्य मिला और उनकी कई कहानियों का उन्होंने संपादन किया। कहा जाता है कि
बिहारी अस्मिता पर आधारित 'देहाती दुनिया' की रचना उन्होंने इस क्रम में
की। बिहारी भूमि पर पत्रकारिता का आगाज उन्होंने भागलपुर सुल्तानगंज से
प्रकाशित 'गंगा' का संपादन कर किया। वर्ष 1935 में उन्होंने लहेरिया सराय
में आचार्य रामलोचन शर्मा के पुस्तक भंडार से प्रकाशित 'बालक' के प्रकाशन
की जिम्मेदारी ली। चार साल यहां गुजारने के बाद उन्होंने छपरा के राजेन्द्र
कालेज में हिंदी के प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। इस दौरान उनकी पुस्तक
'विभूति' व 'माता का आंचल' ने उन्हें साहित्यकारों की जमात की अग्रिम
पंक्ति में ला खड़ा किया। वर्ष 1946 में उन्होंने नौकरी से एक साल छुट्टी
लेकर पटना में पुस्तक भंडार से प्रकाशित साहित्य को समर्पित मासिक पत्रिका
'हिमालय' के संपादक का दायित्व निभाया। आजादी के बाद वर्ष 1949 में वे
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के सचिव बनाये गये। बाद में परिषद के वे निदेशक
बने। इस दौरान उन्होंने अपने संपादन में 'हिंदी साहित्य और बिहार' के रूप
में ऐसी विरासत गढ़ी जो आज भी विचारधारा को शब्दों के माध्यम से व्यक्त
करने की बिहारी शैली का दर्पण है। साहित्य के क्षेत्र में उनके योगदान के
लिए वर्ष 1960 में उन्हें पद्म-भूषण अवार्ड से सम्मानित किया गया। 21 जनवरी
1963 को पटना में उनका देहांत हो गया। उनके देहावसान के बाद भी 'वे दिन वे
लोग', 'मेरा जीवन' व 'स्मृतिशेष' जैसी उनकी कालजयी रचनायें प्रकाशित हुई।
ढूंढे नहीं मिलती 'देहाती दुनिया'
ढूंढे नहीं मिलती 'देहाती दुनिया'